सामाजिक बदलाव की धुरी बना बिहार

नई दिल्ली।

देश की राजनीति और विकास से जुड़े प्रयास और विमर्श को अगर बारीकी से देखें-समझें तो इसके केंद्र में सामाजिक बदलाव का तर्क एक बार फिर से महत्व पा रहा है। वैसे इस महत्व के रेखांकन से पहले एक एहतियात जरूरी है। खासतौर पर जो लोग देश में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति की धारा को अलग-अलग देखते रहे हैं, उन्हें अपना नजरिया बदलना चाहिए। यह राज्यों के साथ देश के राजनीतिक और विकासात्मक चरित्र के बदलने का दौर है। खासतौर पर आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के कारण इससे जुड़ी चर्चा और विमर्श के कई मुहाने एक साथ खुल गए हैं।

दिलचस्प है कि बीते दो दशक में बिहार ने राजनीतिक स्थिरता के साथ विकास और सामाजिक बदलाव की जो राह पकड़ी है, वो अपनी यात्रा में तो लंबी है ही, इसने देश के सामने सामाजिक बदलाव और राजनीति का एक संतुलित मॉडल भी पेश किया है। इस मॉडल के नायक निस्संदेह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं, जिनकी मौजूदगी आज प्रदेश में हर राजनीतिक गठजोड़ के लिए अपरिहार्य बनी हुई है।

इतिहास के साथ मौजूदा देशकाल को साझे तौर पर देखें तो आपातकाल और बिहार आंदोलन को कैलेंडर में पचास साल पूरा होते देखना एक लंबी राजनीतिक-सामाजिक यात्रा का लैंडस्केप सामने रखता है। दरअसल, चंपारण सत्याग्रह से लेकर संपूर्ण क्रांति और उसके बाद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के दौर तक बिहार ने देश में सामाजिक जागरुकता और राजनीति के समकोण को बनाए और टिकाए रखा है। यह समकोण है सामाजिक बदलाव के तर्क के साथ सबको साथ लेकर चलने वाले सुचिंतित विवेक और सद्भाव का।

 कुछ समय पहले केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना का एलान किया और अब तो इसकी अधिसूचना भी जारी हो चुकी है। इससे पहले बिहार में जाति आधारित सर्वेक्षण का कार्य न सिर्फ पूरा हुआ, बल्कि इस आधार पर आरक्षण का दायरा बढ़ाने पर भी विधानमंडल सहमत हुआ। यह अलग बात है कि यह कवायद संवैधानिक प्रावधानों की सीमा और अदालती फैसलों  के कारण बीच में ही रुक गई।  हाल में बिहार में सामाजिक सुरक्षा पेंशन राशि में बड़ी बढ़ोतरी की घोषणा भी ऐसी ही एक और बड़ी पहल है। इस बारे में बताते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, ‘सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना के तहत सभी वृद्धजनों, दिव्यांगजनों और विधवा महिलाओं को अब हर महीने 400 रुपए की जगह 1100 रुपए पेंशन मिलेगी। सभी लाभार्थियों को जुलाई महीने से पेंशन बढ़ी हुई दर पर मिलेगी। सभी लाभार्थियों के खाते में यह राशि महीने की 10 तारीख को भेजना सुनिश्चित किया जाएगा। इससे 1 करोड़ 9 लाख 69 हजार 255 लाभार्थियों को काफी मदद मिलेगी। वृद्धजन समाज का अनमोल हिस्सा हैं और उनका सम्मानजनक जीवन-यापन सुनिश्चित करना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है। राज्य सरकार इस दिशा में निरंतर प्रयत्नशील रहेगी।’

गौरतलब है कि पांच दशक पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने जब बिहार की धरती से संपूर्ण क्रांति का बिगूल फूंका था तो उसके पीछे ‘सर्वोदय’ को लेकर उनकी पहले से बनी दृष्टि और ‘ग्राम स्वराज’ की गांधीवादी कल्पना भी शामिल थी। जयप्रकाश आंदोलन का शीर्ष गीत लिखने वाले रामगोपाल दीक्षित ने तब व्यवस्था परिवर्तन की वकालत करते हुए लिखा भी था- ‘लाख-लाख झोपड़ियों में तो छाई हुई उदासी है, सत्ता-संपत्ति के बंगलों में हंसती पूरनमासी है।’ इस दिशा में देश में और राज्य में अब भी बहुत कुछ होना है। पर बिहार जरूर इस मामले में आगे बढ़कर कह सकता है कि वह पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को 50 फीसद आरक्षण देने वाला देश का पहला सूबा है। आज जब यह प्रदेश विकास के नए संकल्पों के साथ आगे बढ़ने का उत्साह दिखा रहा है तो उसमें शासन और विकास की विकेंद्रित अवधारणा को मजबूती देने का एजेंडा भी शामिल है।

बीते दो दशक में बिहार में आए सामाजिक बदलाव की बात करें तो सबसे पहले जिस बात का जिक्र आएगा, वो है राज्य में 2006 में पंचायती राज संस्थाओं में 50 प्रतिशत आरक्षण का फैसला। देश में ऐसा प्रगतिशील निर्णय लेने वाला बिहार पहला राज्य था। बाद में कई प्रदेशों ने इस दिशा में आगे बढ़ते हुए सत्ता के विकेंद्रीकरण के सूत्र के साथ महिला सशक्तीकरण का जमीनी आधार तैयार किया। बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान से लेकर जम्मू कश्मीर तक पंचायतों में महिला नेतृत्व ने अपने निर्णयों और कार्यशैली से देश के लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूती दी है। यह भी कि ये सारे वे राज्य हैं जहां महिलाओं की सामाजिक स्थिति और लैंगिक गैरबराबरी को लेकर चिंता सबसे ज्यादा व्यक्त की जाती रही। 2006 में ही बिहार सरकार ने प्रारंभिक शिक्षक नियुक्ति में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय किया। इसी तरह, 2007 से नगर निकायों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण मिला। आगे चलकर 2013 में बिहार पुलिस में महिलाओं को 35 फीसदी आरक्षण का मार्ग प्रशस्त हुआ। मंडल कमीशन के दौर और उसके बाद की देश की राजनीति में यह हस्तक्षेप तारीखी अहमियत रखता है।

इन फैसलों से प्रदेश में महिलाओं के बीच बहाल हुए आत्मविश्वास का नतीजा है कि बिहार में आज 10.81 लाख स्वयं सहायता समूह हैं। इससे प्रदेश में 1.35 करोड़ से अधिक महिलाएं आत्मनिर्भर बनी हैं। सरकार के इन प्रयासों का हासिल रहा कि 2011 की जनगणना में बिहार की महिलाओं की साक्षरता दर में 20 फीसद की दशकीय वृद्धि दर्ज हुई। इस कारण बिहार को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। महिला साक्षरता दर का सीधा प्रभाव महिला प्रजनन दर पर पड़ा, जो 4.3 से घटकर 2.9 पर पहुंच गई।

आज सुशासन को लेकर खूब बात होती है। पर इस बात को लेकर यह विवेक हर स्तर पर नदारद दिखता है कि इसके लिए सामाजिक आचरण और व्यवहार में शुचिता को लेकर सबसे पहले पहल करनी होगी। गौरतलब है कि देश में सुशासन बाबू की छवि गढ़ने में सफल रहे नीतीश कुमार ने इस दिशा में एक बड़ी और ऐतिहासिक पहल की। यह साल था 2016। राजनीतिक नफा-नुकसान की परवाह किए बगैर बिहार में सामाजिक बदलाव और महिला सशक्तीकरण के लिहाज से एक बड़ा फैसला लेते हुए उन्होंने शराबबंदी लागू कराया। बिहार में शराबबंदी के नौ वर्ष पूरे हो चुके हैं। कई तरह की स्फीतियों की शिकार मौजूदा राजनीतिक संस्कृति में इस तरह के निर्णय का नैतिक साहस दिखाना बड़ी बात है।

इस तरह हम देखें तो बदलाव और विकास की सामाजिक धुरी को देखने-समझने का विवेक दिखाते हुए बिहार ने कम से कम नीतीश राज के दो दशक में सामाजिक प्रतिबद्धता की राजनीति को एक नया आयाम दिया है। बड़ी बात यह है कि जिस सूबे के मुखिया को सुशासन बाबू कहा गया, उसके नेतृत्व में ही बिहार में बगैर किसी अतिरिक्त शोर-शराबे के सामाजिक क्रांति का यह ऐतिहासिक चरण पूरा हुआ है।

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