“जातिवाद की आग में झुलसता समाज, विकास के सपनों पर पानी”

धर्म से आगे अब जाति की राजनीति, युवाओं की उम्मीदों को निगलता विभाजनकारी माहौल

हाल के वर्षों में भारत में सामाजिक माहौल तेजी से बदलता दिख रहा है। जहां पहले धार्मिक कट्टरता चिंता का विषय थी, अब स्थिति और भी गंभीर हो चुकी है — जातिगत संघर्ष और भाषाई विवादों ने देश की सामाजिक एकता को नई चुनौती दी है। राजनीतिक लाभ के लिए नेता जहां धर्म और जाति का सहारा ले रहे हैं, वहीं बेरोजगारी, महंगाई और गरीबी जैसे असल मुद्दे हाशिए पर जा चुके हैं।

इतिहास की काली परछाइयों से आज की हकीकत तक

भारत का जातिगत इतिहास हजारों वर्षों पुराना है, जिसमें समाज को चार मुख्य वर्गों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—में बांट दिया गया था। सवर्ण जातियों ने लंबे समय तक दलितों और पिछड़ों पर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से अत्याचार किए। छुआछूत, शिक्षा से वंचित रखना और सम्मानहीनता जैसी कुप्रथाएं समाज का हिस्सा थीं।

लेकिन इसी समाज में फुले दंपति, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे सुधारक भी हुए जिन्होंने इन कुप्रथाओं के खिलाफ मोर्चा खोला और समानता, शिक्षा और अधिकारों की बात की।

आजादी के 75 वर्षों बाद भी क्यों नहीं बदली सोच?

आजादी के दशकों बाद भी समाज में जातिवाद एक बड़ी समस्या बना हुआ है। हर जाति में कुछ ऐसे कट्टरपंथी समूह उभर आए हैं जो या तो अपनी जाति को श्रेष्ठ मानते हैं या बदले की भावना से प्रेरित होकर सामाजिक विभाजन को बढ़ावा दे रहे हैं। कुछ ब्राह्मण अब भी खुद को धर्म का ठेकेदार समझते हैं, वहीं कुछ दलित गुट इतिहास के शोषण का बदला लेने की मंशा रखते हैं।

असल में यह लड़ाई कुछ कट्टरपंथियों की है, न कि पूरे समाज की। पढ़े-लिखे और जागरूक नागरिकों की प्राथमिकता आज भी शिक्षा, रोजगार और जीवन स्तर में सुधार है, लेकिन ये आवाजें चरमपंथियों और राजनीतिक स्वार्थों के शोर में दब जाती हैं।

सोशल मीडिया बना नफरत का जरिया, नेताओं को मिल गया नया हथियार

डिजिटल युग में सोशल मीडिया जातिवादी और धार्मिक उकसावे का सबसे तेज़ माध्यम बन गया है। यहां चरमपंथी अपनी विचारधाराएं खुलेआम फैलाते हैं और समाज में जहर घोलते हैं। नेताओं के लिए यह एक अवसर है—वोटबैंक मजबूत करने का और असल मुद्दों से ध्यान भटकाने का। मीडिया को भी इससे हेडलाइन और टीआरपी मिल जाती है।

जातिवाद नहीं, समावेशी विकास है असली रास्ता

आज के दौर में जहां दुनिया वैज्ञानिक सोच, तकनीक और वैश्विक प्रतिस्पर्धा की ओर बढ़ रही है, वहीं भारत का समाज जातिवादी संकीर्णता में उलझा हुआ है। ये कट्टरपंथी यह भूल गए हैं कि एक विकसित देश की नींव धर्म या जाति से नहीं, शिक्षा, समावेशिता और अनुशासन से रखी जाती है।

अगर यह जातीय कट्टरता यूं ही बढ़ती रही तो यह न केवल सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करेगी, बल्कि देश के विकास की गति को भी थाम देगी। जरूरी है कि हर वर्ग के लोग मिलकर एक समावेशी, समानता पर आधारित और विकासोन्मुख समाज की दिशा में सोचें, न कि अतीत के अंधेरों में उलझे रहें।

ये भी पढ़ें :- DSPC कार्यालय पहुंचीं वानाथी श्रीनिवासन, पैरा खिलाड़ियों को मिला समर्थन का भरोसा

More From Author

DSPC कार्यालय पहुंचीं वानाथी श्रीनिवासन, पैरा खिलाड़ियों को मिला समर्थन का भरोसा

मुखर्जी नगर में इन्दिरा आईवीएफ का नया फर्टिलिटी क्लिनिक शुरू

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *