भारतीय न्याय व्यवस्था का मूल सिद्धांत है कि कानून सबके लिए समान है और कोई भी व्यक्ति इससे ऊपर नहीं हो सकता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस यशवंत वर्मा से जुड़े ‘बर्न्ट नोट्स’ मामले में अब तक FIR दर्ज न होने से न्यायपालिका की जवाबदेही पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं।
Veeraswami केस और जजों के लिए विशेषाधिकार
1991 के K. Veeraswami बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने फैसला दिया था कि किसी भी उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट के जज के खिलाफ FIR दर्ज करने से पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश से अनुमति लेना आवश्यक होगा। यह निर्णय पुलिस को उनके संवैधानिक कर्तव्य से रोकने वाला साबित हुआ, जिससे न्यायपालिका को एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग में तब्दील कर दिया गया।
जस्टिस वर्मा का मामला: FIR दर्ज क्यों नहीं हुई?
‘बर्न्ट नोट्स’ घोटाले में जस्टिस यशवंत वर्मा का नाम सामने आने के बावजूद न तो FIR दर्ज हुई और न ही कोई गिरफ्तारी हुई। यह सवाल उठ रहे हैं कि—
- घटना के दिन 14 मार्च को ही FIR क्यों नहीं हुई?
- जब्त की गई नकदी को आधिकारिक रिकॉर्ड में क्यों नहीं लाया गया?
- सुप्रीम कोर्ट और उसकी आंतरिक समिति ने मामले को सार्वजनिक करने में देर क्यों की?
- फायर डिपार्टमेंट के बयान पहले क्यों बदले गए?
जनता की मांग: पारदर्शी जांच हो
इस मामले में जनता का मानना है कि या तो इसे दबाने का प्रयास किया जा रहा है, या फिर जांच में जानबूझकर देरी की जा रही है। न्यायमूर्ति वर्मा ने दावा किया कि वे इस धन के मालिक नहीं हैं, लेकिन यदि यह सच है, तो उन्होंने तत्काल पुलिस को सूचना क्यों नहीं दी?
सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने इस मामले की जांच के लिए केवल एक आंतरिक समिति गठित की है, जबकि कानूनी रूप से FIR दर्ज कर विस्तृत जांच आवश्यक है। यदि इस मामले में निष्पक्षता नहीं बरती गई, तो यह न केवल न्यायपालिका की पारदर्शिता पर सवाल खड़ा करेगा बल्कि जनता का विश्वास भी कमजोर करेगा।
क्या महाभियोग पर्याप्त होगा?
अगर न्यायमूर्ति वर्मा दोषी पाए जाते हैं, तो केवल महाभियोग चलाना पर्याप्त नहीं होगा। कानून का राज बनाए रखने के लिए सख्त कानूनी कार्रवाई आवश्यक है। यह न्यायपालिका, जनता और देश की कानून व्यवस्था की साख बचाने का मामला है।