नई दिल्ली।
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि यौन अपराध के मामलों में अदालत का इस्तेमाल दो पक्षों के बीच विवाह सुविधा प्रदाता के रूप में नहीं किया जा सकता। न्यायिक प्रणाली का इस्तेमाल हिसाब-किताब बराबर करने या विशेष तरीके से व्यवहार करने के लिए एक पक्ष पर दबाव डालने के लिए नहीं किया जा सकता। हाईकरोर्ट ने शादी का झांसा देकर एक महिला से कथित दुष्कर्म करने के मामले में एक आरोपी की अंतरिम जमानत याचिका खारिज करते हुए यह टिप्पणी की।
आरोपी ने इस आधार पर गिरफ्तारी पूर्व जमानत का अनुरोध किया था कि वह पीड़िता से विवाह करने के लिए राजी था। याचिकाकर्ता ने कहा कि महिला के पिता, जो पहले अंतरजातीय विवाह के पक्ष में नहीं, अब विवाह को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। हालांकि, जस्टिस स्वर्णकांता शर्मा ने कहा कि रिकॉर्ड पर मौजूद तथ्यों और दस्तावेजों से पता चलता है कि आरोपी और शिकायतकर्ता, दोनों ने न्यायिक प्रणाली और जांच एजेंसियों का इस्तेमाल किया और विभिन्न तरीकों से अपने फायदे के लिए न्यायिक प्रणाली में हेरफेर करने की कोशिश कर रहे हैं।
बेंच ने कहा, ‘‘अदालत की राय है कि कानूनी अदालत का इस्तेमाल विवाह सुविधा के उद्देश्य से एक मंच के रूप में नहीं किया जा सकता। पहले प्राथमिकी दर्ज कराके आरोप लगाया गया कि आरोपी ने शारीरिक संबंध बनाने के बाद पीड़िता से शादी करने से इनकार कर दिया था, लेकिन बाद में अदालत के समक्ष पेश होकर जमानत देने का अनुरोध किया गया जिसका कि वे कई महीनों से विरोध कर रहे थे।’’ राज्य सरकार ने जमानत याचिका का इस आधार पर विरोध किया कि आरोप गंभीर प्रकृति के हैं और आरोपी कभी जांच में शामिल नहीं हुआ और फरार है।
बेंच ने कहा, ‘‘बहुत से मामले में जब शिकायतकार्ता के अनुरोध पर जमानत दे दी जाती है, तो कुछ समय बाद इस आधार पर जमानत रद्द करने की याचिका दायर की जाती है कि जमानत प्राप्त करने के बाद आरोपी ने शादी करने का अपना वादा पूरा नहीं किया या दुष्कर्म पीड़िता से शादी करने के बाद आरोपी ने पीड़िता का परित्याग कर दिया।’’ बेंच ने कहा कि आरोपी पर पीड़िता से विवाह करने का दबाव डालने समेत अन्य उद्देश्यों के लिए अदालत का विवाह सुविधा प्रदाता के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। अन्य उद्देश्यों में आरोपी द्वारा शिकायतकर्ता को अदालत के समक्ष पेश होकर यह कहने के लिए कहना शामिल है कि वह (आरोपी) पीड़िता से शादी करने के लिए तैयार था।